हाइलाइट्सः
1. अनुच्छेद 200 और 201 में यह परिकल्पना की गई है कि राष्ट्रपति अपने विवेक से निर्णय लेंगे कि अनुमति देनी है या नहीं। साथ ही इन प्रावधानों में अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की किसी भूमिका का उल्लेख नहीं है।
2. इस तरह की प्रस्तावना यह पूर्वकल्पित करती है कि संविधान से संबंधित प्रश्नों पर केवल न्यायपालिका ही निर्णय ले सकती है, जबकि संविधान यह मानता है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, प्रत्येक अपने-अपने क्षेत्राधिकार में संविधान की व्याख्या करने के लिए सक्षम और अधिकृत हैं।
नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने विधेयकों की संवैधानिकता पर राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने के लिए बाध्य करने वाले फैसले पर आपत्ति जताई है। केंद्र सरकार ने कहा है कि न्यायपालिका राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकती कि वह अपने पूर्ण विवेक का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट की राय कैसे और कब और किन मुद्दों पर लें। केंद्र ने जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ के 8 अप्रैल के फैसले को गलत ठहराया।
‘राष्ट्रपति ऐसा करने को बाध्य नहीं’
केंद्र ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से कहा कि अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति की शक्तियों को सीधे तौर पर पढ़ने से पता चलता है कि सलाह लेने का पूर्ण विवेक राष्ट्रपति के पास है। ‘परामर्श’ शब्द का अर्थ सलाह मांगना है और यह दर्शाता है कि राष्ट्रपति ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
विधायिका बहस के दौरान किसी विधेयक की संवैधानिकता पर विचार करती है, राष्ट्रपति या राज्यपाल किसी विधेयक को रोकने, स्वीकृत करने या उसे संदर्भित करने का निर्णय लेते समय अपने विवेक का प्रयोग करते हैं। न्यायपालिका उचित कार्यवाही में किसी अधिनियम की वैधता का निर्णय करती है।
3. ऐसा प्रस्ताव एक संवैधानिक विशेषाधिकार को एक सतत परमादेश के रूप में न्यायिक आदेश में बदल देता है, जो अस्वीकार्य है।
केंद्र सरकार ने कहा कि संविधान न्यायपालिका को किसी ऐसे विधेयक की विषय-वस्तु की जांच करने का अधिकार नहीं देता जो राज्यपाल या राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना अभी तक कानून नहीं बना है।