Monday, December 1, 2025
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नेता विपक्ष की कार्यशैली से देश परखेगा राहुल गांधी का सियासी ज्ञान

– डॉ. रमेश ठाकुर

सोलहवीं और 17वीं लोकसभा में नंबरों के लिहाज से कांग्रेस 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में इतनी पिछड़ गई थी कि उसे नेता प्रतिपक्ष का पद भी नसीब नहीं हुआ। नेता विपक्ष पद की बात तो दूर, पार्टी का भविष्य और अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया था। कम नंबर संख्या के कारण ही संसद में नेता विपक्ष की सीट भी रिक्त रही। पर, कहते हैं कि सियासत में चमत्कार की संभावनाएं अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा रहती हैं। किसके सितारे कब बुलंद हो जाए और किसके अचानक बुझ जाएं? इसका दारोमदार जनता के मूड और विचारों पर निर्भर रहता है? 2024 के आम चुनाव में हुआ भी कमोबेश कुछ ऐसा ही। भाजपा 400 पार के नारे के साथ फिर से प्रचंड बहुमत में आने को पूरी तरह आश्वस्त थी, लेकिन जनता ने अस्वीकार कर दिया। मौका जरूर दिया, लेकिन आधा-अधूरा। हालांकि, कांग्रेस ने इस बार उम्मीद से कहीं बढ़कर प्रदर्शन कर खुद को लड़ाई में बरकरार रखा।

कांग्रेस हो या भाजपा प्रचंड जीत से बौराने की प्रवृत्ति से सभी दलों को तौबा करना होगा। 2024 का जनादेश सभी के लिए सीख जैसा है। कांग्रेस को जनता ने नया जीवनदान दिया है। इसलिए कांग्रेस के सितारे एक बार फिर थोड़े से चमके हैं। पिछली बार मात्र 44 सांसद ही जीतकर संसद पहुंचे थे। पर, ये आंकड़ा इस दफे 99 तक पहुंचा है। तभी कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष के लिए दावेदार हुई है। अच्छे नंबरों से पास होने का ही नतीजा है कि नेता विपक्ष के लिए राहुल गांधी के नाम पर ताजपोशी होनी विपक्षी धड़े की ओर से मुकर्रर हुई है। जनता का संदेश पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए बराबर है। जो जनता के हित में काम करेगा, उसकी जयकार होगी। वरना, घमंड चकनाचूर करने में देश के मतदाता जरा भी नहीं हिचकेंगे। 2024 के जनादेश ने देश की सियासी तस्वीर पूरी तरह से बदल दी है। चाहे प्रधानमंत्री हों या नेता विपक्ष सभी से काम की उम्मीद करती है। नेता भी अब समझ गए हैं कि लच्छेदार बातों और हवा-हवाई दावों से अब काम नहीं चलने वाला।

बहरहाल, गठबंधन राजनीति में नेता विपक्ष के पद को पूरे पांच वर्ष तक सुचारू रूप से यथावत रखना भी किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। पद पर आसीन होने वाले ओहदेदार के लिए भी चुनौतियों की भरमार रहेगी। उन्हें हर घड़ी अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। नेता विपक्ष का पद राहुल गांधी की सियासी समझ की भी कठिन परीक्षा लेगा, क्योंकि सत्तापक्ष और देश की एक बड़ी आबादी अभी तक उन्हें सियासत का 10वीं पास छात्र ही समझती रही है। दरअसल समझने के कई ताजा उदाहरण भी सामने मुंह खोले जो खड़े हैं। राहुल गांधी कई बार अपने सियासी प्रयोगों में विगत वर्षों में असफल हुए हैं। इसलिए भी लोगों को थोड़ा बहुत संदेह अब भी है। उनके सियासी इतिहास के पन्ने खोलने पर एक विफलता भरी तस्वीर उभरती है। वह कांग्रेस अध्यक्ष का पद भी अच्छे से निर्वाह नहीं कर सके, जिसके चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। अमेठी से चुनाव भी हारे और अपनी अगुआई में पार्टी को चुनाव लड़ाकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सके। कुल मिलाकर उनके हिस्से में सियासी असफलता की भरमार है। पर, इन गुजरे वर्षों में अच्छी बात ये रही, वह लगातार हारने के बावजूद भी हिम्मत नहीं हारे। सियासी मैदान में डटे रहे। खुद को साबित करने के लिए भारत जोड़ो यात्रा निकाली, जिसमें लोगों का समर्थन हासिल किया। यही कारण है, जनता ने उनपर थोड़ा भरोसा जताया है।

खैर, राजनीति में असफलता ज्यादा मायने नहीं रखती। कोई भी हार सकता है। इसलिए ये पुरानी और बेजान बात ही है। सियासत ऐसा अखाड़ा है जहां अच्छे से अच्छा खिलाड़ी चित हुआ है। ताजा उदाहरण मौजूदा लोकसभा चुनाव का परिणाम है जिसमें बड़े से बड़े शूरमा धराशायी हो गए। अपने राजनीतिक करियर में राहुल गांधी पहली मर्तबा कोई संसदीय ओहदा संभालने जा रहे हैं। 18वीं लोकसभा में वह नेता विपक्ष की भूमिका में होंगे, जिसे इंडी गठबंधन के तकरीबन सभी प्रमुख नेताओं ने अपनी स्वीकृति प्रदान की है। राहुल की उम्मीदवारी की स्वीकृति के लिए प्रोटेम स्पीकर भर्तृहरि महताब को कांग्रेस की ओर से 25 जून की देर शाम को अर्जी भेज दी थी। नेता विपक्ष का पद कांग्रेस को दस साल बाद नसीब हुआ है।

राहुल नेता विपक्ष बनने वाले गांधी परिवार से तीसरे सदस्य हैं। उनके पहले उनके पिता तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सांसद मां सोनिया गांधी रह चुकी हैं। प्रतिपक्ष भारतीय संसद के दोनों सदनों में, प्रत्येक में आधिकारिक विपक्ष का नेतृत्वकर्ता होता है। इसलिए नेता विपक्ष का ओहदा अपने आप में बहुत मायने रखता है। प्रधानमंत्री जैसी एक तिहाई शक्तियां उन्हें प्रदान होती हैं। सुविधाएं केंद्रीय मंत्री से कहीं बढ़कर दी जाती हैं। तनख्वाह भी तीन लाख रुपये से ऊपर होती है। इसके अलावा नेता विपक्ष ईडी निदेशक, सीबीआई प्रमुख, सीवीसी जैसे उच्च पदों की नियुक्ति में सहभागी होता है। प्रधानमंत्री को नियमानुसार नेता विपक्ष की राय लेनी अनिवार्य होती है। नेता विपक्ष अभिलेखा समिति का भी प्रमुख रहता है जो सरकार के प्रत्येक निर्णयों और खर्चों पर निगाह रखता है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब अपने तीसरे कार्यकाल में जो भी बड़े निर्णय लेंगे या संवैधानिक नियुक्तियां करेंगे उसमें नेता विपक्ष की भूमिका में रहने वाले उस नेता की राय लिया करेंगे, जिन्हें चुनाव में उन्होंने ये भी कह दिया था कि ‘कौन राहुल’? इसलिए इस बार की संसदीय प्रक्रिया बहुत दिलचस्प और टकराव भरी होने वाली है। इसमें चुनौती राहुल गांधी के समक्ष सबसे ज्यादा रहेगी, क्योंकि जनता उनके दमखम को नेता विपक्ष के तौर पर परखेगी और भविष्य की राजनीति में उनके कद को तय करेगी।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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